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Description

यह पुस्तक प्रख्यात लेखक अल्बर्ट हबर्ड के अमर लेख ‘अ मैसेज टु गार्शिया’ का हिंदी अनुवाद है। यह पुस्तक आज से 120 साल पहले लिखी गई थी, लेकिन इसका संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि तब था। कहानी छोटी सी है, लेकिन इसके माध्यम से बड़े ही असरदार तरीक़े से बताया गया है कि करियर में सफल होने और तेज़ तरक्की करने के लिए इंसान में कौन से गुण होने चाहिए और उसे क्या करना चाहिए।
इस छोटी सी कहानी या लेख के प्रकाशन की कहानी बड़ी दिलचस्प है। मार्च 1899 में ‘फिलिस्टाइन’ मैग्ज़ीन में जगह भरने की समस्या थी, इसलिए इसके प्रकाशक अल्बर्ट हबर्ड ने आनन-फानन में इसे सिर्फ़ एक घंटे में लिखा, क्योंकि उनके सिर पर डेडलाइन की तलवार लटक रही थी। उन्हें इसकी लोकप्रियता या महत्व का इतना कम अंदाज़ा था कि उन्होंने इसे बिना किसी शीर्षक के प्रकाशित कर दिया।
इसके बाद की कहानी लेखक अल्बर्ट हबर्ड ख़ुद बताते हैं,
‘जब पत्रिका का संस्करण बाज़ार में पहुँचा, तो जल्दी ही ‘फिलिस्टाइन’ के मार्च अंक की अतिरिक्त प्रतियों के ऑर्डर आने लगे – एक दर्जन, पचास, सौ। जब अमेरिकन न्यूज कंपनी ने मार्च अंक की एक हज़ार प्रतियों का ऑर्डर दिया, तो मैंने अपने एक सहायक से पूछा कि हमारी पत्रिका में ऐसा कौन सा लेख छपा था, जिसने पूरे अमेरिका में धूम मचा दी थी।
उसने कहा, ‘यह गार्शिया वाला लेख है।’
और फिर अगले ही दिन न्यूयॉर्क सेंट्रल रेलरोड के जॉर्ज एच. डेनियल्स का टेलीग्राम आया, जिसमें लिखा था: ‘रोवन वाले लेख को पैंफलेट के रूप में छापने के लिए एक लाख प्रतियों की क़ीमत बताएँ – जिसके पीछे एम्पायर स्टेट एक्सप्रेस विज्ञापन हो – यह भी बताएँ कि आप इन्हें कितनी जल्दी भेज सकते हैं।’
मैंने जवाब में क़ीमत तो बता दी, लेकिन यह भी लिखा कि पैंफलेट छापकर भेजने में हमें दो साल लग जाएँगे। हमारी क्षमता सीमित थी, हमारी मशीनें छोटी थीं और एक लाख बुकलेट छापने का काम हिमालय पर चढ़ने जितना कठिन लग रहा था।
ज़ाहिर है, मि. डेनियल्स दो साल तक इंतज़ार करने को तैयार नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि मैंने मि. डेनियल्स को यह अनुमति दे दी कि वे इस लेख को अपने मनचाहे तरीक़े से ख़ुद छाप लें। उन्होंने यह बात ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर ली। और उन्होंने एक लाख प्रतियाँ नहीं छापीं। उन्होंने तो बुकलेट के रूप में पाँच लाख प्रतियों का संस्करण प्रकाशित किया। और एक बार नहीं, बल्कि दो-तीन बार। यानी दस-पंद्रह लाख प्रतियाँ! इसके अलावा यह लेख दो सौ से ज़्यादा पत्रिकाओं व अख़बारों में भी छपा। मुझे यह बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि इसका अनुवाद सभी लिखित भाषाओं में हो चुका है। बहुत कम लेखकों को यह सौभाग्य मिलता है और मैं इस मामले में ख़ुद को बहुत खुशनसीब समझता हूँ।’
‘अ मैसेज टु गार्शिया’ की लोकप्रियता और सफलता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इस पर दो फिल्में भी बन चुकी हैं।

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